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तीन महाव्रत (teen mahavrat)

तीन महाव्रत (teen mahavrat)

पिछले लेख में हमने ” व्रत एवं उपवास पूर्ण शास्त्रीय विधि से संपन्न होने चाहिए ” इस बारे में संक्षेप में चर्चा की इस  लेख में “तीन महाव्रत” ( teen mahavrat ) इस विषय में संक्षेप में चर्चा करेंगे |

शरीर-संसार से सम्बन्ध विच्छेद करना अर्थात उनको मैं, मेरा और मेरे लिए न मानना मनुष्य मात्र का महाव्रत है | इस महाव्रत का पालन करते हुए परमात्मप्राप्ति करने के लिए ही यह मनुष्य शरीर मिला है | इस महाव्रत की सिद्धि के लिए भगवान ने तीन योग बताये हैं – कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग |

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कर्मयोगी का महाव्रत

किसी को बुरा नहीं समझना, किसी का बुरा नहीं चाहना तथा किसी का बुरा न करना |

परमात्मा का अंश होने से प्राणी मात्र स्वरूप से निर्दोष ( बुराई रहित ) है –

ईश्वर अंश जीव अविनाशी | चेतन अमल सहज सुख राशी ||

इसलिए कोई भी मनुष्य सर्वथा, सर्वदा और सबके लिए बुरा नहीं होता | उसमे जो बुराई दिखती है वह आगंतुक है स्वाभाविक नहीं है | आगंतुक बुराई को देखकर किसी को बुरा समझना, किसी का  बुरा चाहना तथा किसी का बुरा करना सर्वथा अनुचित है | बुरा समझनेवाला, बुरा चाहने वाला और बुरा करने वला कभी सेवा नहीं कर सकता | जबकि कर्मयोग में निष्काम भाव से दूसरों की सेवा करना मुख्य है |

दूसरे को बुरा समझने से हमारे भीतर क्रोध, बैर, विषमता, पक्षपात आदि बुराइयां आ ही जायेंगी, भले ही दूसरा बुरा हो या न हो | दूसरे का बुरा चाहने से हमारे भावों में बुराई आ ही जाएगी | अतः बुरा चाहने से दूसरे का बुरा तो होगा नहीं पर हमारा बुरा हो ही जायेगा | इसलिए कर्मयोगी इस महाव्रत का पालन करता है कि मैं किसी को बुरा नहीं समझूंगा, किसीका बुरा नहीं चाहूंगा तथा किसी का बुरा नहीं करूँगा |

ज्ञानयोगी का महाव्रत

किसी भी वास्तु- व्यक्ति का संग न करना – प्राणिमात्र का स्वरूप असंग है – असंगो ह्यम पुरुषः | परन्तु मिलने तथा बिछुड़ने वाली वस्तुओं का संग करने से अर्थात उनको अपनी और अपने लिए मानाने से मनुष्य को अपनी स्वतः सिद्धि असंगता का अनुभव नहीं होता | स्वरूप का विभाग अलग है और मिलने- बिछुड़ने वाली वस्तुओं का विभाग अलग है | यह दोनों विभाग सूर्य और अमावस्या की रात के समान एक-दूसरे से सर्वथा अलग- अलग हैं | मिलाने बछुड़ने वाली वस्तुओं के विभाग से अपना सम्बन्ध मानना ही ऊंच -नीच योनियों में जन्म लेने का कारन है – ” कारणं गुण सङ्गोस्य सदसद्दो निजन्मसु ” (गीता १३ | २१ ) इसलिए ज्ञान योगी इस महाव्रत का पालन करता है कि मैं किसी भी काल में शरीर नहीं हूँ मेरा किसी भी वस्तु-व्यक्ति से किंचिन्मात्र भी समबन्ध नहीं है |

भक्तियोगी का महाव्रत

एक भगवान के अन्य किसी को भी अपना न मानना |

भगवान को जान तो नहीं सकते पर अपना अवश्य मन सकते हैं | जैसे हम अपने माता पिता को जान नहीं सकते केवल अपना मन सकते हैं | माता पिता को मने बिना रह सकते भी नहीं क्योंकि शरीर की सत्ता मानते हैं तो माता पिता की सत्ता माननी ही पड़ेगी | माता पिट एके बिना शरीर कहं से आया ? ऐसे ही हम अपनी (स्वयं की ) सत्ता मानते हैं तो भगवान की सत्ता माननी ही पड़ेगी | भगवान को अपना मानाने से उनमे आत्मीयता होकर प्रेम हो  है | पराम् प्रेम की जाग्रति में ही मानव जीवन की पूर्णता है |

कर्मयोगी और ज्ञानयोगी –

दोंनो के महाव्रत लौकिक हैं | परन्तु भक्तियोगी का महाव्रत अलौकिक है | लौकिक महाव्रत का पालन करने से मोक्ष की तथा अलौकिक महाव्रत का पालन करने से मोक्ष के साथ-साथ परम प्रेम की प्राप्ति भी हो जाती है जो मानव जीवन का परम लक्ष्य है |

इस लेख में हमने “तीन महाव्रत” ( teen mahavrat ) इस बारे में संक्षेप में चर्चा की अगले लेख में ” व्रत उपवास से अनंत पुण्य और आरोग्य की प्राप्ति  ” इस विषय में संक्षेप में चर्चा करेंगे |

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Pandit Rajkumar Dubey

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