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वेदव्यास की कथा (ved vyas)

ved vyas- भगवान वेदव्यास और उनकी व्रतचर्या

पिछले लेख में हमने ” भक्तराज प्रह्लाद – शीलव्रत के आदर्श ” इस सन्दर्भ में संक्षेप में चर्चा की थी | इस लेख में  ” व्रतों के आदि उपदेष्टा भगवान वेदव्यास (ved vyas) और उनकी व्रतचर्या  ” के सन्दर्भ में सक्षेप में चर्चा करेंगे | 

जयति परारशरसूनुः सत्यवती हृदय नन्दनो व्यासः |

यस्यास्य कमलगलितं वांग्मयममृतं जगत पिबति ||

( वायु ० १ | १ | २ )

श्रीपराशर जी के पुत्र, सत्यवती के हृदय को आनंदित करने वाले उन वेदव्यासजी की जय हो जिनके मुख कमल से शास्त्र रूपी सुधाधारा का पान सारा संसार करता है |

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‘ व्यासो नारायणः साक्षात् ‘ ved vyas जी साक्षात् नारायण के अवतार

वेदव्यास जी साक्षात् नारायण के अवतार हैं | अज्ञानान्धकार में निमग्न प्राणियों को सदाचार, धर्माचरण, देवोपासना तथा व्रत उपवास आदि नियमो की सच्चर्या का उपदेश  देने के लिए उनका अवतरण हुआ | और प्रसिद्धि यही है कि व्यास जी आज भी अजर अमर हैं | भक्तजन उनकी नित्य उपासना तथा सेवा-पूजा में संलग्न रहते हैं | भगवान वेदव्यास की अवतरण तिथि आषाढ़ पूर्णिमा है इस दिन उनकी विशेष आराधना – पूजा होती है और बड़े समारोह से महोत्सव मनाया जाता है | यह तिथि गुरु पूर्णिमा के रूप में प्रसिद्ध है | यह श्रद्धा, आस्था और समर्पण का पर्व है |

महा भागवत शुकदेव के पिता (ved vyas)

महर्षि वेदव्यासजी वसिष्ठ के प्रपौत्र, शक्ति ऋषि के पौत्र, तथा महर्षि पराशर के पुत्र एवं महाभागवत  शुकदेवजी के पिता हैं | भगवान वेदव्यासजी का जीवों पर परम अनुग्रह है वे दया, कृपा एवं सदाचार की प्रतिमूर्ति हैं | जीवों का कल्याण कैसे हो – इसके लिए वे निरंतर चिन्तन करते रहते हैं | धर्माचरण, व्रत उपवास  तथा सदाचार उनके जीवन में प्रतिष्ठित है | उनकी तपश्चर्या एवं व्रतचर्या सबके लिए अनुकरणीय है |

ved vyas के अनेक नाम

पुराणों में प्रसिद्धि है कि यमुना नदी के द्वीप में उनका प्राकट्य हुआ इसलिए वे द्वैपायन कहलाये और श्याम वर्ण के थे इसलिए कृष्णद्वैपायन कहलाये | वेदसंहिता का उन्होंने विभाजन किया इससे व्यास अर्थात वेदव्यास नाम से प्रसिद्ध हुए –

विव्यास वेदान यस्मात स तस्माद व्यास इति स्मृतः ||

( महा ० आदि ० ६३ | ८८ )

परन्तु जब उन्होंने देखा कि अल्पमेधावी प्रजावर्ग गूढ़ वेद अर्थों को इतने पर भी नहीं समझ पा रहा है तब वेदार्थों के उपबृंहण के लिए उन्होंने अष्टादश पुराणों उपपुराणों के साथ ही ‘ महाभारत ‘ नामक विशाल ग्रन्थ की रचना की | इसके अतिरिक्त शास्त्रीय आचार – दर्शन के लिए बृहद व्यासस्मृति, लघुव्यासस्मृति आदि ग्रन्थ इन्हीं की कृपा से हमें प्राप्त हुए | वैदिक एवं औउपनिषदिक शंकाओं की निवृत्ति के लिए ‘ ब्रम्हसूत्र ‘ या वेदान्तदर्शन का इन्होंने ही निर्माण किया | योगदर्शन पर व्यासभाष्य इनकी अद्भुत रचना है | ब्रम्हाण्डपुराण का एक भाग ‘ अध्यात्मरामायण ‘ इन्हीं की कृपा से हमें प्राप्त हो सका है | आज का सम्पूर्ण विश्वविज्ञान एवं साहित्यिक वांग्मय व्यासजी का ही उच्छिष्ट है |

जो वेदों में नहीं वो पुरानों में

इतना होने पर भी वेदव्यास रचित पुराण वांग्मय सनातन संस्कृति का सर्वाधिक उपकारक रहा है | वास्तव में सनातन संस्कृति का अवबोध बिना पुराणों के संभव नहीं है | भगवान वेदव्यास ने यहाँ तक कह दिया कि वेदों में तिथि, नक्षत्र आदि काल – निर्णायक और गृह संचार की कोई युक्ति नहीं बताई गई है | तिथियों की बृद्धि, क्षय, पर्व, ग्रहण आदि का भी निर्णय उनमे नहीं है | यह निर्णय सर्वप्रथम इतिहास- पुराणों के द्वारा ही निश्चित  किया गया है | जो बातें वेदों में नहीं हैं वे सब स्मृतियों में हैं और जो इन दोनों में नहीं हैं वे पुराणों के द्वारा ज्ञात होतीं हैं –

ना० पु० उ० अ० २४ में आता है

न वेदे ग्रहसंचारो न शुद्धि कलाबोधिनी |

तिथि बृद्धिक्षयो वापि पर्वग्रह विनिर्णयः ||

इतिहास पुराणैस्तु निश्चयोअयं कृतः पुरा |

यन्न दृष्टं हि वेदेषु तत्सर्वं लक्ष्यते स्मृतौ ||

उभयोर्यन्न दृष्टं हि तत्पुराणैः प्रगीयते |

उपर्युक्त कथन में स्पष्ट निर्देश है कि वेदों में व्रत उपवास, पर्व, ग्रहण आदि नियमों तथा व्रतचर्या का जो सूक्ष्म संकेत मात्र आया है उसका वेदव्यासजी ने आख्यान-उपाख्यान के माध्यम से पुराणों में विस्तार से प्रतिपादन कर दिया है | वेदव्यासजी ने बताया है कि व्रत उपवास पाप कर्मों को दूर करने, पुण्य का आधान करने तथा भगवत प्राप्ति के मार्ग में परम सहायक हैं |

पर्व एवं उत्सव सम्बन्धी सम्पूर्ण विधियों का सन्निवेश

इसीलिए वेदव्यास जी ने पुराणों में व्रत, पर्व एवं उत्सव सम्बन्धी सम्पूर्ण विधियों का सन्निवेश कर  दिया है | व्रत क्यों करणीय है कब -कब कौन से व्रत करने चाहिए, व्रतकर्ता को किन -किन नियमों का पालन करना चाहिए, उपवास में आहार का क्या विधान है, व्रतों की दीक्षा कैसे लेनी चाहिए तथा व्रतों के दिनों में कैसे व्रत के अधिष्ठाता देव का अर्चन-पूजन एवं बंदन करना चाहिए और व्रत की पूर्ति पर किए उद्द्यापन करना चाहिए इत्यादि सम्पूर्ण विधान बता दिए हैं | इसके साथ ही विभिन्न तीर्थों की महिमा, देवप्रसादों के उत्सव, विभिन्न पर्वों पर होने वाले विशाल महोत्सवों का भी निर्देश कर दिया है |

वेद व्यास जी की कृपा

यह सामग्री हमें पुराण के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलती | अगर वेदव्यासजी कृपा कर पुराणों की रचना न करते तो हमें यह सब कुछ जानकारी ही नहीं होती | भारतीय संस्कृति की जो आचार परम्परा है उसका दर्शन ही नहीं होता | प्रायः सभी पुराणों-उपपुराणों में व्रत उपवास का प्रतिपादन हुआ है तथापि विशेष विवरण की दृष्टि से अग्निपुराण, भविष्यपुराण, मत्स्यपुराण, पद्मपुराण , स्कन्दपुराण , वाराहपुराण  तथा विष्णुधर्मोत्तर आदि पुराण बड़े महत्त्व के हैं | यहां संक्षेंप में थोड़ा निदर्शन किया जाता है –

सभी व्रतों की खान अग्निपुराण

अग्निपुराण में वर्णित भगवान वेदव्यासजी (ved vyas) का व्रत उपवास वर्णन बहुत महत्त्व का है तथा यह व्रतों का सारतत्व है | इसमें लगभग 26 अध्यायों में प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक के व्रतों का वर्णन है | तदनन्तर वारव्रत, नक्षत्रव्रत, मसव्रत एवं संक्राति व्रतों का वर्णन है |

ved vyas द्वारा व्रतों की परिभाषा

भगवान वेदव्यासजी व्रत की परिभाषा बताते हुए कहते हैं – शत्रोक्त नियमों को ही व्रत कहते हैं  वही तप माना गया है |  दम ( इन्द्रियसंयम ) और शम ( मनोनिग्रह ) आदि विशेष नियम भी व्रत के ही अंग हैं | व्रत करने वाले पुरुष को शारीरिक संताप सहन करना पड़ता है इसीलिए व्रत को तप नाम दिया गया है | इसी प्रकार व्रत में इन्द्रिय समुदाय का नियमन (संयम ) करना होता है इसलिए उसे नियम कहते हैं | व्यासजी के मूल वचन इस प्रकार हैं –

शास्त्रोदितो हि नियमो व्रतं तच्च तपो मतम |

नियमास्तु विशेषास्तु व्रतस्यैव दमादयः ||

व्रतं हि कर्तु सन्तापात्तप इत्यभिधीयते |

इन्द्रिय ग्राम नियमानियमश्चाभिधीयते ||

( अग्निपुराण १७५ | २-३ )

ved vyas द्वारा व्रतों की महिमा

व्रतों की महिमा बताते हुए व्यासजी कहते हैं – व्रत उपवास आदि के पालन से प्रसन्न होकर देवता एवं भगवान भोग तथा मोक्ष प्रदान करते हैं —

ते स्युर्देवादयः प्रीता भुक्तिमुक्ति प्रदायकाः ||

( अग्निपुराण १७५ | ५ )

क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रियसंयम, देवपूजा, अग्निहोत्र, संतोष तथा चोरी का अभाव – ऐ दस नियम सामान्यतः सम्पूर्ण व्रतों में आवश्यक माने गए हैं –

क्षमा सत्यं दया दानं शौचमिन्द्रयनिग्रहः |

देवपूजाग्निहरणं संतोषोस्तेमेव च ||

सर्वव्रतेष्वयम धर्मः सामान्यो दशधा स्मृतः |

( अग्निपुराण १७५ | १० -११ )

असमर्थता के समय क्या करें

यदि व्रत करने में असमर्थता हो तो पत्नी या पुत्र से व्रत को पूर्ण कराएं | आरम्भ किए हुए व्रत का पालन जननाशौच तथा मरणाशौच में भी करना चाहिए | केवल पूजन का कार्य बंद कर देना चाहिए | जल, मूल, फल, दूध, हविष्य (घी), ब्राम्हण की इच्छापूर्ति, गुरु का वचन तथा औषध – ये आठ व्रत के नाशक नहीं हैं —

अष्टौ तान्यव्रतघ्नानी आपो मूलं फलं पयः |

हविर्ब्रम्हणकाम्या च गुरोर्वाचनमौषधम ||

( अग्निपुराण १७५ | ४३ )

व्यासजी व्रतचर्या के सम्बन्ध में बताते हैं –व्रती को चाहिए कि ……… क्रमशः अगले लेख में … |

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Pandit Rajkumar Dubey

Pandit Rajkumar Dubey

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