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Govatsa Dwadashi kab hai

Govatsa Dwadashi kab hai: संतान सुख, दीर्घायु और समृद्धि देने वाला पवित्र व्रत और धनतेरस का प्रवेश द्वार

प्रस्तावना: भारतीय संस्कृति में गौमाता का स्थान

Govatsa Dwadashi kab hai – भारतीय सनातन धर्म और संस्कृति में गौमाता को पृथ्वी पर साक्षात देवत्व का प्रतीक माना गया है। उन्हें केवल एक पशु नहीं, बल्कि माता के रूप में पूजा जाता है, जिसके शरीर में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का वास माना जाता है। इसी गौ-महिमा को समर्पित एक अत्यंत पवित्र पर्व है – गौवत्स द्वादशी

यह पर्व हर वर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को मनाया जाता है। इसे बछ बारस, नंदिनी व्रत, वत्स द्वादशी और कुछ क्षेत्रों में वासु बारस (महाराष्ट्र) या वाघ बरस (गुजरात) के नाम से भी जाना जाता है। यह व्रत विशेष रूप से संतान की लंबी आयु, परिवार की सुख-समृद्धि और गौ-कृपा की प्राप्ति के लिए किया जाता है। यह दीपावली के पांच दिवसीय महापर्व की शुरुआत का प्रतीक भी है, जो धनतेरस से ठीक एक दिन पहले आता है।

गौवत्स द्वादशी का अर्थ और पौराणिक संदर्भ (Govatsa Dwadashi kab hai)

‘गौवत्स द्वादशी’ दो शब्दों से मिलकर बना है:

  • गो/गौ: जिसका अर्थ है ‘गाय’।
  • वत्स: जिसका अर्थ है ‘बछड़ा’।
  • द्वादशी: जिसका अर्थ है ‘बारहवीं तिथि’।

अर्थात, यह वह तिथि है जब गाय और उनके बछड़े की विशेष पूजा और सेवा की जाती है।

Govatsa Dwadashi kab hai
Govatsa Dwadashi kab hai

नंदिनी व्रत का महत्व

इस दिन को नंदिनी व्रत भी कहा जाता है। नंदिनी, पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, देवों की गाय कामधेनु की पुत्री थीं, जो ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में निवास करती थीं। नंदिनी सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाली और धन-धान्य प्रदान करने वाली मानी जाती हैं। गौवत्स द्वादशी का व्रत करने से सीधे नंदिनी गाय और कामधेनु की कृपा प्राप्त होती है।

भविष्य पुराण में उल्लेख

भविष्य पुराण में इस व्रत के महत्व का विस्तार से वर्णन मिलता है। यह कहा गया है कि सबसे पहले महाराज उत्तानपाद (स्वयंभुव मनु के पुत्र) और उनकी पत्नी सुनीति ने इस व्रत को निष्ठापूर्वक किया था, जिसके फलस्वरूप उन्हें अक्षय पुण्य और संतान सुख की प्राप्ति हुई थी। यह व्रत न केवल भौतिक सुख प्रदान करता है, बल्कि व्यक्ति को करुणा, आस्था और धर्म-संवर्धन के मार्ग पर भी ले जाता है।

Govatsa Dwadashi kab hai – व्रत की विस्तृत पूजा विधि (कर्मकांड)

गौवत्स द्वादशी का व्रत अत्यंत निष्ठा और विधि-विधान से किया जाता है। व्रती को दिन भर निर्जल या फलाहार व्रत रखना होता है और शाम के समय गोधूलि बेला में पूजा की जाती है।

1. प्रातःकाल की तैयारी

  • स्नान और संकल्प: सूर्योदय से पूर्व उठकर पवित्र स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें। हाथ में जल, फूल और अक्षत लेकर संतान की मंगलकामना और परिवार के कल्याण का संकल्प लें।
  • स्थान चयन: पूजा के लिए घर के पास गौशाला या ऐसा स्थान चुनें जहाँ गाय और उनका बछड़ा उपलब्ध हो। यदि गौमाता उपलब्ध न हों, तो गीली मिट्टी से गाय, बछड़ा, बाघ और बाघिन की मूर्तियाँ बनाकर पूजा की जाती है।

2. गोधूलि बेला में पूजा – Govatsa Dwadashi kab hai

गोधूलि बेला (संध्या समय, जब गायें चरकर घर लौटती हैं) पूजा के लिए सबसे शुभ मानी जाती है।

  • सफाई और सज्जा: गाय और बछड़े को स्नान कराकर उन्हें नए वस्त्र, फूल-माला और आभूषणों से सजाया जाता है।
  • तिलक और अर्घ्य: उनके माथे पर हल्दी, कुमकुम (रोली) और चंदन का तिलक लगाया जाता है। गाय के आगे के चरणों (पैरों) पर तांबे के कलश से जल भरकर अर्घ्य समर्पित किया जाता है।
  • षोडशोपचार पूजा: धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य (भोग), वस्त्र आदि से उनकी षोडशोपचार पूजा की जाती है।
  • प्रसाद अर्पित: गाय और बछड़े को मुख्य रूप से अंकुरित मूंग, चने की दाल और अन्य चारा/घास अर्पित किया जाता है। यह प्रसाद स्वयं देवी नंदिनी का प्रतीक माना जाता है।
  • आरती और परिक्रमा: घी का दीपक जलाकर गौमाता और बछड़े की आरती की जाती है और कम से कम सात बार उनकी परिक्रमा (प्रदक्षिणा) की जाती है।
  • प्रार्थना: पूजा के पश्चात् गौमाता को प्रणाम करके यह विशेष प्रार्थना की जाती है:

सर्वदेवमये देवि सर्वदेवैरलंकृते|

मातर्ममाभिलषितं सफलं कुरु नन्दिनि।

(अर्थ: हे देवी, आप सभी देवताओं से युक्त और सभी देवताओं द्वारा अलंकृत हैं। हे माता नंदिनी, मेरी मनोकामना पूर्ण करें।)

3. व्रत का पारण

व्रत का पारण रात में गौ-पूजा के बाद किया जाता है। पारण में केवल वे ही खाद्य पदार्थ लिए जाते हैं, जिनका सेवन दिन भर वर्जित नहीं था (जैसे फल, बाजरे की रोटी, भैंस का दूध)।

व्रत के कठोर नियम और वर्जित वस्तुएँ

गौवत्स द्वादशी व्रत के नियम इस दिन की महत्ता को और बढ़ाते हैं:

  1. अन्न वर्जित: इस दिन गेहूं और चावल से बने किसी भी खाद्य पदार्थ का सेवन भूलकर भी नहीं करना चाहिए।
  2. गौ-दुग्ध वर्जित: व्रतधारी को गाय का दूध और उससे बने उत्पाद जैसे दही, छाछ, घी, पनीर, खोया आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। इसके स्थान पर, भैंस का दूध या अन्य फलाहार लिया जा सकता है।
  3. धारदार वस्तु वर्जित: इस दिन चाकू या किसी भी धारदार वस्तु का उपयोग नहीं किया जाता है। इसलिए, फल या सब्जी काटने के बजाय साबुत फल या बिना कटी हुई सब्जियों का उपयोग किया जाता है।
  4. तामसिकता से दूरी: व्रत के दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और तामसिक भोजन (मांस, मदिरा) तथा क्रोध से दूर रहना चाहिए।

गौवत्स द्वादशी की पौराणिक कथा (Govatsa Dwadashi kab hai)

एक प्राचीन कथा के अनुसार, किसी गाँव में एक साहूकार रहता था जिसके सात बेटे थे। साहूकार के घर के पास ही एक तालाब था जो सूख रहा था। पंडितों ने बताया कि तालाब तभी भरेगा जब साहूकार अपने बड़े बेटे या बड़े पोते की बलि देगा।

साहूकार की बड़ी बहू ने गौवत्स द्वादशी का व्रत रखा हुआ था, लेकिन साहूकार को गौमाता और व्रत की महत्ता पर विश्वास नहीं था। साहूकार ने अपनी बड़ी बहू को मायके भेज दिया और पीछे से अपने बड़े पोते की बलि दे दी। बेटे को मारकर उसने मृत शरीर के टुकड़े कर दिए और पकाकर भोजन के रूप में बहू के लिए भेज दिए।

जब बहू मायके से लौटी और भोजन करने बैठी, तभी गौवत्स द्वादशी की तिथि आ गई। उसने व्रत का पालन करते हुए वह भोजन अस्वीकार कर दिया और गौमाता तथा बछड़े की पूजा की। पूजा के दौरान उसने गौमाता से अपने बच्चों की लंबी आयु और मंगल कामना के लिए प्रार्थना की।

जैसे ही उसने प्रार्थना पूरी की, घर के बाहर से उसके मृत बेटे और पोते की आवाज आई। उसने बाहर जाकर देखा, तो वे दोनों जीवित और स्वस्थ खड़े थे। साहूकार को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसे पता चला कि उसके अविश्वास और गौमाता के प्रति अनादर के कारण ही यह विपत्ति आई थी, लेकिन बहू के व्रत के पुण्य और गौमाता की कृपा से उसके बच्चे पुनः जीवित हो गए।

इस घटना के बाद, पूरे गाँव में गौवत्स द्वादशी व्रत की महिमा फैल गई। तब से पुत्रवती स्त्रियाँ विशेष रूप से अपने बच्चों की दीर्घायु और सुख-समृद्धि के लिए इस व्रत को नियमपूर्वक रखती हैं।

क्षेत्रीय भिन्नताएं (भारत के अलग-अलग हिस्सों में)

गौवत्स द्वादशी को भारत के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग नामों से और थोड़ी भिन्न परंपराओं के साथ मनाया जाता है:

  • महाराष्ट्र में वासु बारस के नाम से मनाया जाता है, यह दीपावली उत्सव का पहला दिन माना जाता है। ‘वासु’ (धन) और ‘बारस’ (द्वादशी)। इस दिन गायों को विशेष रूप से चारे और व्यंजनों से खिलाया जाता है।
  • गुजरात में वाघ बरस के नाम से मनाया जाता है, ‘वाघ’ का अर्थ ‘ऋण चुकाना’ भी होता है। व्यापारी वर्ग इस दिन अपने पुराने बही-खातों को साफ करके नए बही-खातों की शुरुआत करते हैं।
  • उत्तर भारत में बछ बारस के नाम से मनाया जाता है, मुख्य रूप से संतान की लंबी आयु के लिए व्रत किया जाता है। इस दिन मिट्टी से बाघ और बाघिन की मूर्तियाँ बनाकर भी पूजा की जाती है, ताकि गाय और बछड़े की वन के हिंसक जीवों से रक्षा हो सके।
  • दक्षिणी भारत में (यह पर्व कम प्रचलित है) कुछ जगहों पर यह भाद्रपद कृष्ण द्वादशी को भी मनाया जाता है, लेकिन कार्तिक माह का व्रत अधिक व्यापक है।

गौवत्स द्वादशी का वैज्ञानिक और सामाजिक महत्व

यह पर्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि इसका सामाजिक और वैज्ञानिक आधार भी है:

  • गौ-संरक्षण: यह पर्व हमें गौ-संरक्षण और संवर्धन के प्रति हमारी जिम्मेदारी का बोध कराता है। यह गायों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है, जो सदियों से भारतीय समाज की रीढ़ रही हैं।
  • पारंपरिक खाद्य: इस दिन गेहूं और चावल से परहेज करके बाजरा, मूंग दाल और चना जैसे पारंपरिक और मोटे अनाजों का सेवन करने की परंपरा है, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत लाभदायक माने जाते हैं।
  • ममता और करुणा: यह व्रत गौमाता के मातृत्व और करुणा के भाव को समर्पित है, जो मानव मन में भी दया और प्रेम के भाव को जागृत करता है।
  • पशु-धन का सम्मान: यह पर्व पशु-धन के महत्व को स्थापित करता है, जो ग्रामीण जीवन में आजीविका और पोषण का मुख्य स्रोत रहे हैं।

उपसंहार – Govatsa Dwadashi kab hai

गौवत्स द्वादशी का पर्व केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि गौमाता के प्रति हमारी सनातन आस्था, पारिवारिक कल्याण की कामना और प्रकृति के प्रति सम्मान का प्रतीक है। यह पर्व हमें सिखाता है कि जिस प्रकार गौमाता निस्वार्थ भाव से हमें दूध, स्वास्थ्य और समृद्धि प्रदान करती हैं, उसी प्रकार हमें भी उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए।

गौवत्स द्वादशी का यह शुभ दिन सभी व्रतियों के जीवन में संतान-सुख, धन-धान्य और अक्षय पुण्य का संचार करे।

।। जय गौमाता, जय श्री कृष्णा ।।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ) — Govatsa Dwadashi kab hai

❓प्रश्न 1: गौवत्स द्वादशी किस महीने में मनाई जाती है?

उत्तर: गौवत्स द्वादशी हर वर्ष कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को मनाई जाती है। यह धनतेरस से एक दिन पूर्व आती है।

❓प्रश्न 2: गौवत्स द्वादशी का प्रमुख उद्देश्य क्या है?

उत्तर: इस व्रत का उद्देश्य गौमाता की कृपा प्राप्त कर संतान की दीर्घायु, परिवार की समृद्धि और पापों का नाश करना है।

❓प्रश्न 3: इस दिन क्या नहीं खाना चाहिए?

उत्तर: इस दिन गेहूं, चावल और गाय के दूध से बने पदार्थों का सेवन वर्जित है। व्रती फलाहार, भैंस का दूध या बाजरे की रोटी ग्रहण कर सकता है।

❓प्रश्न 4: गौवत्स द्वादशी को नंदिनी व्रत क्यों कहा जाता है?

उत्तर: क्योंकि यह व्रत कामधेनु की पुत्री नंदिनी गाय की आराधना से संबंधित है। नंदिनी देवी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली मानी गई हैं।

❓प्रश्न 5: क्या गौवत्स द्वादशी केवल महिलाओं का व्रत है?

उत्तर: नहीं। पुरुष और महिलाएं दोनों ही श्रद्धा से यह व्रत रख सकते हैं। हालांकि परंपरागत रूप से पुत्रवती स्त्रियाँ इसे अधिक करती हैं।

❓प्रश्न 6: इस दिन गाय और बछड़े की पूजा क्यों की जाती है?

उत्तर: यह पूजा मातृत्व और जीवन रक्षा के प्रतीक के रूप में की जाती है। गाय को माता और बछड़े को संतान का प्रतीक माना गया है।

❓प्रश्न 7: यदि गाय उपलब्ध न हो तो क्या करें?

उत्तर: यदि वास्तविक गौमाता उपलब्ध न हो, तो गीली मिट्टी से गाय, बछड़ा, बाघ और बाघिन की मूर्तियाँ बनाकर उनकी पूजा की जा सकती है।

❓प्रश्न 8: गौवत्स द्वादशी का संबंध धनतेरस से कैसे है?

उत्तर: गौवत्स द्वादशी के अगले दिन ही धनतेरस का पर्व आता है। इसलिए इसे दीपावली के शुभारंभ का द्वार कहा गया है।

❓प्रश्न 9: इस व्रत से क्या फल प्राप्त होता है?

उत्तर: जो व्यक्ति श्रद्धा से यह व्रत करता है, उसे गौमाता की कृपा, संतान-सुख, धन-धान्य, आरोग्य और दीर्घायु की प्राप्ति होती है।

❓प्रश्न 10: इस व्रत का सामाजिक संदेश क्या है?

उत्तर: यह व्रत गौ-संरक्षण, करुणा, पशु-प्रेम और पारिवारिक मूल्यों को बढ़ावा देता है — जो सनातन संस्कृति की जड़ हैं।

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