Nag panchami श्रावण शुक्ल पंचमी
Nag panchami 2022 date, puja muhurt 2022 – पञ्चमी तिथि प्रारम्भ – अगस्त 02, 2022 को 05:11 ए एम बजे से पञ्चमी तिथि समाप्त – अगस्त 03, 2022 को 05:39 ए एम बजे तक | नाग पञ्चमी पूजा मूहूर्त – 05:39ए एमसे08:17ए एम तक रहेगा | अवधि – 02 घण्टे 38 मिनट्स की होगी |
प्रातः उठकर घर की सफाई कर नित्यकर्म से निवृत्त हो जाएँ । पश्चात स्नान कर साफ-स्वच्छ वस्त्र धारण करें । पूजन के लिए सेंवई-चावल आदि ताजा भोजन बनाएँ । कुछ प्रान्तों में एसी मान्यता है कि में नागपंचमी से एक दिन भोजन बना कर रख लिया जाता है और नागपंचमी के दिन बासी खाना खाया जाता है ।
इसके बाद दीवार पर गेरू पोतकर पूजन का स्थान बनाया जाता है | फिर कच्चे दूध में कोयला घिसकर उससे गेरू पुती दीवार पर घर जैसा बनाते हैं और उसमें अनेक नागदेवों की आकृति बनाते हैं । कुछ जगहों पर सोने, चांदी, काठ व मिट्टी की कलम तथा हल्दी व चंदन की स्याही से अथवा गोबर से घर के मुख्य दरवाजे के दोनों बगलों में पाँच फन वाले नागदेव अंकित कर पूजते हैं ।
सर्वप्रथम नागों की बांबी में एक कटोरी दूध चढ़ा आते हैं । बांबी को साँपों को का घर माना जाता है | और फिर दीवार पर बनाए गए नागदेवता की दधि, दूर्वा, कुशा, गंध, अक्षत, पुष्प, जल, कच्चा दूध, रोली और चावल आदि से पूजन कर सेंवई व मिष्ठान से उनका भोग लगाते हैं । पश्चात आरती कर कथा श्रवण करना चाहिए ।
सावन सोमवार व्रत विधि एवं कथा
उत्सवप्रियता भारतीय जीवन की प्रमुख विशेषता है। देश में समय समय पर अनेक पर्वों एवं त्यौहारों का भव्य आयोजन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को nag panchami नागपंचमी का त्यौहार नागों को समर्पित है। इस त्योहार पर व्रत पूर्वक नागोंका अर्चन पूजन होता है। वेद और पुराणों मे नागोंका उद्गम महर्षि कश्यप और उनकी पत्नि कद्रू से माना जाता है। नागों का मूलस्थान पाताललोक प्रसिद्ध है। पुराणों में नांगलोक की राजधानी के रूप में भोगवतीपुरी विख्यात है। संस्कृतकथा – साहित्य में विशेषरूप से ‘कथासरित्सागर’ नागलोक और वहाँ के निवासियों की कथाओं से ओतप्रोत है।
गरुडपुराण, भविष्यपुराण, चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, भावप्रकाश आदि ग्रंथों में नगसम्बंधी विविध विषयों का उल्लेख मिलता है। पुराणों में यक्ष, किन्नर और गंधर्वों के वर्णन के साथ नागों का वर्णन मिलता है। भगवान विष्णु की शय्याकी शोभा नागराज शेष बढाते हैं। भगवान शिव और गणेशजी के अलंकरण में भी नांगो की महत्वपूर्ण भूमिका है। योगसिद्धि के लिये जो कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत की जाती है, उसको सर्पिणी कहा जाता है। पुराणों में भगवान सूर्य के रथ में द्वादश नांगो का उल्लेख मिलता है। जो क्रमसः प्रत्येक मास में उनके रथ के वाहक बनते हैं। इस प्रकार अन्य देवताओं ने भी नांगो को धारण किया है। नांगदेवता भारतीय संस्कृति में देवरूपमें स्वीकार किये गये हैं।
कशमीर का प्रसिद्ध अनंतनाग-(nag panchami)
कशमीर के जाने माने संस्कृत कवि कल्हण ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘राजतरंगणी’ में कशमीर की सम्पूर्ण भूमिको नांगो का अवदान माना है। वहाँ के प्रसिद्ध नगर अनंतनाग का नामकरण इसका एतिहासिक प्रमाण है। देश के पर्वतीय प्रदेशों में नागपूजा बहुतायत से होती है। यहाँ नांगदेवता अत्यंत पूज्य माने जाते हैं। हमारे देश के प्रत्येक ग्राम नगर में ग्रामदेवता और लोकदेवता के रूप में नागदेवताओं के पूजा स्थल हैं। भारतीय संस्कृति सायं प्रातः भगवत्स्मरण के साथ अनंत तथा वासुकि आदि पवित्र नांगो का नाम स्मरण भी किया जाता है। जिनसे नागविष और भय से रक्षा होती है तथा सर्वत्र विजय होती है।
नाग पंचमी का महत्त्व देवी भागवत में
देवीभागवत में प्रमुख नागों का नित्य स्मरण किया गया है। हमारे ऋषि मुनियों ने नागोपासना में अनेक व्रत पूजन का विधान किया है। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी नागों को अत्यंत आनंद देने वाली है- ‘नागानामानंदकरी’ पंचमी तिथि को नाग पूजा में उनको गौ दुग्ध से स्नान कराने का विधान है। कहा जाता है कि एक बार मातृ शाप से नागलोक जलने लगा। इस दाह पीडा की निवृत्ति के लिये nag panchami ( नागपंचमी) को गोदुग्ध स्नान जहाँ नागों के शीतलता प्रदान करता है वहाँ भक्तों को सर्प भय से मुक्ति भी देता है। नागपंचमी की कथा के श्रवण का बडा महत्व है। इस कथा के प्रवक्ता सुमंत मुनि थे तथा श्रोता पाण्डववंश के राजा शतानीक थे। कथा इस प्रकार है –
व्रत कथा
कथा – एक बार देवताओं तथा असुरों ने समुद्रमंथन द्वारा चौदह रत्नों में उच्चैःश्रवा नामक अश्र्व्ररत्न प्राप्त किया था। यह अश्र्व अत्यंत श्र्वेतवर्ण का था। उसे देखकर नागमाता कद्रू तथा विमाता विनिता दोनों में अश्र्व के रंग के सम्बंध में वाद- विवाद हुआ। कद्रू ने कहा कि अश्र्व के केश श्याम वर्ण के हैं। यदि में अपने कथन में असत्य सिद्ध होऊँ तो में तुम्हारी दासी बनूंगी अन्यथा तुम मेरी दासी बनोगी। कद्रू ने नागों को बाल के समान सूक्ष्म बनाकर अश्र्व के शरीर में आवेष्टित होनेका निर्देश किया किंतु नागों ने अपनी असमर्थता प्रकट की। इस पर कद्रू ने क्रुद्ध होकर नागों को शाप दिया कि पाण्डववंश के राजा जनमेजय नाग यज्ञ करेगें उस यज्ञ में तुम सब जलकर भस्म हो जाओगे।
नांगमाता के शाप से भयभीत नागोंने वासुकि के नेतृत्व में ब्रम्हाजी से शाप निवृत्ति का उपाय पूछा तो ब्रम्हा जी ने निर्देश दिया- यायावरवंश में उत्पन्न तपस्वी जरत्कारु तुम्हारे बहनोई होंगें । उनका पुत्र आस्तीक तुम्हारी रक्षा करेगा। ब्रम्हाजी ने पंचमी तिथिको नागों को यह वरदान दिया था, इसी तिथि पर आस्तीक मुनि ने नागों का परिरक्षण किया था। अतः (nag panchami) नागपंचमी का यह व्रत एतिहासिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
व्रत की विधि
हमारे धर्म ग्रंथों में श्रावणमास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को नागपूजा का विधान है। व्रत के साथ एक बार भोजन करने का नियम है। पूजा में पृथ्वी पर नागों का चित्रांकन किया जाता है। स्वर्ण, रजत, काष्ठ या मृतिका से नांग बनाकर पुष्प, गंध, धूप- दीप एवं विविध नैवेद्दों से नागों का पूजन होता है। नाग पूजन में निम्नलिखित मंत्रों का उच्चारण कर नागों को प्रणाम किया जाता है।
सर्वे नागाः प्रीयंतां मे ये केचित पृथ्वीतले।
ये च हेलिमरीचिस्था येन्तरे दिवि संस्थिता॥
ये नदीषु महानागा या सरस्वतिगामिनः ।
या च वापीतडागेषु तेषु सर्वेषु वै नमः ॥
( भष्यपुराण ब्राम्हपर्व ३२।३३-३४)
भाव यह है कि जो नाग पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग, सूर्य की किरणों, सरोवरों, बापी, कूप तथा तालाब आदि में निवास करते हैं वे सब हम पर प्रसन्न हों हम उनको बार बार नमस्कार करते हैं।
नागों की अनेक जातियाँ और प्रजातियाँ हैं। भविष्यपुराण में नागों के लक्षण, नाम, स्वरूप एवं जातियों का विस्तार से वर्णन मिलता है। मणिधारी तथा इच्छाधारी नागों का भी उल्लेख मिलता है। भारत धर्मप्राण देश है। भारतीय चिंतन प्राणी मात्र में आत्मा और परमात्मा के दर्शन करता है एवं एकता का अनुभव करता है।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्र्वरम ॥
यह दृष्टि ही जीव मात्र – मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट- पतंग – सभी में ईश्वर के दर्शन कराती है। जीवों के प्रति आत्मीयता और दया भाव को विकसित करती है।
मंगला गोरी व्रत विधि एवं कथा
भारत देश कृषिप्रधान देश हैं और है । सांप खेतों का रक्षण करता है, इसलिए उसे क्षेत्रपाल कहते हैं । जीव-जंतु, चूहे आदि जो फसल को नुकसान करने वाले तत्व हैं, उनका नाश करके सांप हमारे खेतों को हराभरा रखता है । साँप हमें कई मूक संदेश भी देता है । साँप के गुण देखने की हमारे पास गुणग्राही और शुभग्राही दृष्टि होनी चाहिए । भगवान दत्तात्रेय की ऐसी शुभ दृष्टि थी, इसलिए ही उन्हें प्रत्येक वस्तु से कुछ न कुछ सीख मिली ।
साँप सामान्यतया किसी को अकारण नहीं काटता । उसे परेशान करने वाले को या छेड़ने वालों को ही वह काटता है । साँप भी प्रभु का सर्जन है, वह यदि नुकसान किए बिना सरलता से जाता हो, या निरुपद्रवी बनकर जीता हो तो उसे मारने का हमें कोई अधिकार नहीं है । जब हम उसके प्राण लेने का प्रयत्न करते हैं, तब अपने प्राण बचाने के लिए या अपना जीवन टिकाने के लिए यदि वह हमें काट दे तो उसे दुष्ट कैसे कहा जा सकता है ?
हमारे प्राण लेने वालों के प्राण लेने का प्रयत्न क्या हम नहीं करते ? साँप को सुगंध बहुत ही भाती है । इसलिए चंपा के पौधे से लिपटकर वह रहता है या तो चंदन के वृक्ष पर वह निवास करता है । केवड़े के वन में भी वह फिरता रहता है । उसे सुगंध प्रिय लगती है, इसलिए भारतीय संस्कृति को वह प्रिय है । प्रत्येक मानव को जीवन में सद्गुणों की सुगंध आती है, सुविचारों की सुवास आती है, वह सुवास हमें प्रिय होनी चाहिए ।
इन्हें भी देखें –
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