व्रत अनुष्ठान की महिमा (vrat mahima)
व्रत अनुष्ठान की महिमा (vrat mahima) पिछले लेख में हमने ” व्रतपर्वोत्सव पर स्वामी विवेकानन्द जी के विचार ” इस बारे में संक्षेप में चर्चा की इस लेख में ” व्रत अनुष्ठान की महिमा ” के विषय में संक्षेप में चर्चा करेंगे |
व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम् |
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ||
( शु० यजु० १९ | ३० )
धर्म और व्रत का सम्बन्ध बड़ा गहरा है | शायद ही कोई ऐसा धर्म होगा जिसमे व्रत के आचरण को महत्त्व न दिया गया हो | हमारे वैदिक धर्म में व्रत की महती प्रतिष्ठा है | व्रत का ठीक-ठीक निर्णय करने के लिए तथा उसका उचित रूप से अनुष्ठान करने के लिए जितना आग्रह हमारे धर्म में दिखलाया जाता है उतना किसी भी धर्म में नहीं होता | इसलिए हमारे धर्म शास्त्र का एक विशेष अंग व्रतों के निर्णय और अनुष्ठान को लेकर प्रवृत्त होता है |
क्या है व्रत का सामान्य अर्थ-(vrat mahima)
व्रत का सामान्य अर्थ क्या है ? निरुक्त में इसका सामान्य अर्थ ‘ कर्म ‘ बतलाया गया है | यह कर्ता को शुभ या अशुभ रूप से बांध लेता है इसलिए इसे व्रत कहते हैं |
वृणोति निबध्नाती कर्तारम इति व्रतम |
कर्मफल उत्पन्न करने के कारण कर्ता को बांध लेता है | जो कोई कर्म करता ही उसक फल उसे भोगना पड़ता है | इसलिए कर्म को व्रत कहते हैं | इस अर्थ में इसका प्रयोग संहिताओं में खूब मिलता है |
vrat mahima- व्रत का एक दूसर अभी अर्थ है जिसका लौकिक संस्कृति में विशेष प्रयोग दिखलाई पड़ता है वह है उपवास आदि नियम विशेष | इस अर्थ में भी इसका प्रयोग मिलता है | यथा – अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि | ( शु० यजु० १ | ५ )
यह निवृत्तिरूप व्रत उपवास आदि है | यह तीन प्रकार का होता है – नित्य नैमित्तिक और काम्य | नित्यव्रत वह है जिसका अनुष्ठान हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है | यथा – एकादशी व्रत | नैमित्तिक व्रत किसी निमित्त ( कारण, अवसर )- को लेकर प्रवृत्त होता है |
यथा – चान्द्रायणव्रत | काम्यव्रत किसी विशेष कामना की सिद्धि के लिए किया जाता है – जैसे भिन्न तिथियों में किए गए व्रत | वेदविहित कर्मों का संपादन करना प्रत्येक हिन्दू का प्रधान कर्तब्य है | इस विषय में महाराज मनु का कथन ध्यान देने योग्य है |
महाराज मनु का कथन ( मनुस्मृति ४ | १४ )
वेदोदितं स्वकं कर्म नित्यं कुर्यादतन्द्रितः |
तद्धि कुर्वन यथाशक्ति प्राप्नोति परमाम गतिम् ||
व्रत का प्रधान उद्देश्य आत्मशुद्धि तथा परमात्म चिंतन है | संसार में नाना प्रपंचों में फसे रहने के कारण हमें परमात्म चिंतन का अवसर काम ही मिलता है | व्रत के दिन वह अवसर आप से आप सुलभ है | व्रत में उपवास का विधान है | केवल अन्नपान के परित्याग से ही उपवास की पूर्ति नहीं होती | उपवास शाब्दिक अर्थ है – ‘ उप समीपे वासः ‘ समीप में रहना अर्थात अपने इष्टदेव के पास रहना | सच्चा उपवास तो परमात्मा का चिंतन करते हुए उनके साथ तन्मय होकर रहना है | इसके लिए अन्नपान का त्याग भी आवश्यक है | इस विषय में गीता का कहना बिलकुल ही ठीक है – ‘ विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ‘ अर्थात जो प्राणी निराहार रहता है उससे विषय आप से आप निवृत्त हो जाते हैं | इस प्रकार व्रतों के विधिवत अनुष्ठान से पर्याप्त आतशुद्धि होती है | इनका ऐतिहासिक महत्त्व भी काम नहीं है | रामनवमी, जन्माष्टमी आदि अनेक व्रत भगवान की किसी विभूति अथवा अवतार से सम्बन्ध रखते हैं | उस दिन व्रत करने से हमारे सामने इस विशिष्ट अवतार की अलौकिक लीलाएं हृदय में नवीन उत्साह नयी स्फूर्ति तथा अनुपम गुणों का उदय कराती है | अतः स्पष्ट है की व्रतों के अनुष्ठान का प्रभाव मानव जीवन पर बड़ा गहरा पड़ता है | परन्तु व्रत के अनुष्ठान विधिवत होने चाहिए | सबसे पहला गुण जो व्रत करने वाले में होना चाहिए वैदिक कृत्यों में गाढ़ श्रद्धा | श्रद्धा का प्रभाव चित्त पर बड़ा ही गहरा पड़ता है | ‘ गुरुवेदांतवाक्येषु विश्वासः श्रद्धा ‘ यदि श्रद्धा है गुरु और शास्त्रों की वाक्यों में अटूट विश्वास |
आस्तिक बुद्धि तथा दृढ़ निश्चिय
विश्वास के साथ आस्तिक बुद्धि का होना भी नितांत आवश्यक है | हमारे ह्रदय में यह दृढ निश्चय होना चाहिए कि इस नाना रूप जगत के मूल में एक सर्वशक्तिमान नियंता विद्द्यमान है | उन्हें ही परम कल्याणकारी होने के कारण ‘शव ‘ कहते हैं | वे ही समग्र मनुष्यों को शरण देने के कारण ‘नारायण ‘ हैं | जगत के समग्र प्राणियों में व्यापक होने के कारण ववे ही विष्णु हैं |
संसार के जितने पदार्थ हैं सब उन्हीं की शक्ति से अनुस्यूत हैं | वे प्राणों के प्राण हैं | समस्त देवत उन्हीं के प्रतिनिधि हैं | जगत में प्राण संचार करने वाला ‘वायु ‘ उनका स्वाश रूप है | जब तक यह भावना दृढ नहीं होती, तब तक व्रत की निष्ठा पूरी नहीं होती | आचरण की सत्यता तीसरा सद्गुण है जिसकी सत्ता सद्दः फल देने वाली होती है | धार्मिक कृत्य जो कुछ किया जाय वह सच्चाई के साथ किया जाना चाहिए | उसका केवल प्रदर्शन नहीं होना चाहिए | यदि भगवान में हार्दिक आस्था रखकर पूर्ण विश्वास तथा सच्चाई के साथ व्रत का अनुष्ठान किया जाय तो उसके सिद्ध होने में विशेष बिलम्ब नहीं होता |
इस लेख में हमने “व्रत अनुष्ठान की महिमा” (vrat mahima) इस बारे में संक्षेप में चर्चा की अगले लेख में ” व्रत एवं उपवास पूर्ण शास्त्रीय विधि से संपन्न होने चाहिए ” इस विषय में संक्षेप में चर्चा करेंगे |
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