एकादशी व्रत विधि एवं कथा
Putrada Ekadashi Vrat Katha – व्रती को चाहिए कि दशमी के सूर्यास्त के पहले भोजन कर लेना चाहिए | एकादशी को प्रातः उठाकर स्नानादि से निवृत्त होकर यदि सुविधा हो तो ब्राम्हण द्वारा कलश स्थापना कराना चाहिए | ब्रम्हाण की सुविधा न होने पर स्वम कलश स्थापपित कर भगवान श्री विष्णु जी की मूर्ति या चित्र को रखकर संकल्प लेकर विधिवत पूजन करना चाहिए | विष्णु भगवान के अनेक मन्त्र हैं यदि मंत्रो के उच्चारण में असुविधा हो तो श्रीमन नारायण श्रीमननारायण का अनवरत जाप करते रहना चाहिए |
हिंदू धर्म में एकादशी व्रत को बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रत्येक वर्ष में चौबीस एकादशियाँ होती हैं। परन्तु जब अधिकमास या जिसे मलमास के नाम से जाना जाता है वो जब आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। श्रावण शुक्ल एकादशी का नाम पुत्रदा है। उसके सुनने मात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है।
एकादशी व्रत की कथा – (Putrada Ekadashi Vrat Katha)
एकबार की बात है श्री युधिष्ठिर जी कहने लगे हे भगवान ! श्रवण शुक्ला एकादशी का क्या नाम है ? व्रत करने की विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए । मधुसूदन कहने लगे कि इस एकादशी का नाम पुत्रदा है । अब आप शांतिपूर्वक इसकी कथा सुनिए । इसके सुनने मात्र से ही वायपेयी यज्ञ का फल मिलता है ।
द्वापर युग के आरंभ में महिष्मति नाम की एक नगरी थी, जिसमें महीजित नाम का राजा राज्य करता था, लेकिन पुत्रहीन होने के कारण राजा को राज्य सुखदायक नहीं लगता था । उसका मानना था कि जिसके संतान न हो, उसके लिए यह लोक और परलोक दोनों ही दु:खदायक होते हैं । पुत्र सुख की प्राप्ति के लिए राजा ने अनेक उपाय किए परंतु राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई।
वृद्धावस्था आती देखकर राजा ने प्रजा के प्रतिनिधियों को बुलाया और कहा – हे प्रजाजनों ! मेरे खजाने में अन्याय से उपार्जन किया हुआ धन नहीं है । न मैंने कभी देवताओं तथा ब्राह्मणों का धन छीना है । किसी दूसरे की धरोहर भी मैंने नहीं ली, प्रजा का पुत्र के समान पालन करता रहा । मैं अपराधियों को पुत्र तथा बाँधवों की तरह दंड देता रहा । कभी किसी से घृणा नहीं की । सबको समान माना है । सज्जनों की सदा पूजा करता हूँ । इस प्रकार धर्मयुक्त राज्य करते हुए भी मेरे पुत्र नहीं है । सो मैं अत्यंत दु:ख पा रहा हूँ, इसका क्या कारण है ?
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राजा महीजित की इस बात को विचारने के लिए मंत्री तथा प्रजा के प्रतिनिधि वन को गए । वहाँ बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के दर्शन किए । राजा की उत्तम कामना की पूर्ति के लिए किसी श्रेष्ठ तपस्वी मुनि को देखते-फिर रहे थे । तभी एक आश्रम में उन्होंने एक अत्यंत वयोवृद्ध धर्म के ज्ञाता, बड़े तपस्वी, परमात्मा में मन लगाए हुए निराहार, जितेंद्रीय, जितात्मा, जितक्रोध, सनातन धर्म के गूढ़ तत्वों को जानने वाले, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता महात्मा लोमश मुनि को देखा, जिनका कल्प के व्यतीत होने पर एक रोम गिरता था इसीलिए उनका नाम लोमश पड़ा था ।
सबने जाकर ऋषि को प्रणाम किया । उन लोगों को देखकर मुनि ने पूछा कि आप लोग किस कारण से आए हैं ? नि:संदेह मैं आप लोगों का हित करूँगा । आप लोग आपनी जिज्ञासा स्पष्ट करें | मेरा जन्म केवल दूसरों के उपकार के लिए हुआ है, इसमें संदेह मत करो ।
लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर सब लोग बोले – हे महर्षे ! आप हमारी बात जानने में ब्रह्मा से भी अधिक समर्थ हैं । अत: आप हमारे इस संदेह को दूर कीजिए । महिष्मति पुरी का धर्मात्मा राजा महीजित प्रजा का पुत्र के समान पालन करता है । फिर भी वह पुत्रहीन होने के कारण दु:खी है ।
उन लोगों ने आगे कहा कि हम लोग उसकी प्रजा हैं । अत: उसके दु:ख से हम भी दु:खी हैं । आपके दर्शन से हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारा यह संकट अवश्य दूर हो जाएगा, क्योंकि महान पुरुषों के दर्शन मात्र से अनेक कष्ट दूर हो जाते हैं । अब आप कृपा करके राजा के पुत्र होने का उपाय बतलाएँ ।
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यह सारी बात सुनकर ऋषि ने थोड़ी देर के लिए नेत्र बंद किए और राजा के पूर्व जन्म का वृत्तांत जानकर कहने लगे कि यह राजा पूर्व जन्म में एक निर्धन वैश्य था । निर्धन होने के कारण इसने कई बुरे कर्म किए । यह एक गाँव से दूसरे गाँव व्यापार करने जाया करता था । एक समय ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन मध्याह्न के समय वह जबकि वह दो दिन से भूखा-प्यासा था, एक जलाशय पर जल पीने गया । उसी स्थान पर एक तत्काल की ब्यायी हुई प्यासी गौ जल पी रही थी ।
राजा ने उस प्यासी गाय को जल पीते हुए हटा दिया और स्वयं जल पीने लगा, इसीलिए राजा को यह दु:ख सहना पड़ा । एकादशी के दिन भूखा रहने से वह राजा हुआ और प्यासी गौ को जल पीते हुए हटाने के कारण पुत्र वियोग का दु:ख सहना पड़ रहा है । ऐसा सुनकर सब लोग कहने लगे कि हे ऋषि ! शास्त्रों में पापों का प्रायश्चित भी लिखा है । अत: जिस प्रकार राजा का यह पाप नष्ट हो जाए, आप ऐसा उपाय बताने की कृपा कीजिए ।
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श्री लोमश मुनि कहने लगे कि श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी को जिसे पुत्रदा एकादशी भी कहते हैं, तुम सब लोग व्रत करो और रात्रि को जागरण करो तो इससे राजा का यह पूर्व जन्म का पाप अवश्य नष्ट हो जाएगा, साथ ही राजा को पुत्र की अवश्य प्राप्ति होगी । लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर मंत्रियों सहित सारी प्रजा नगर को वापस लौट आई और जब श्रावण शुक्ल एकादशी आई तो ऋषि की आज्ञानुसार सबने पुत्रदा एकादशी का व्रत किया और जागरण किया ।
इसके पश्चात द्वादशी के दिन इसके पुण्य का फल राजा को दिया गया । उस पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण किया और प्रसवकाल समाप्त होने पर उसके एक बड़ा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ ।
इसलिए हे राजन! इस श्रावण शुक्ल एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी पड़ा । अत: संतान सुख की इच्छा रखने वाले इस व्रत को अवश्य करें । इसके माहात्म्य को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है और इस लोक में संतान सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग को प्राप्त होता है ।
व्रत का पारण कब करना चाहिए (Putrada Ekadashi Vrat Katha )
व्रत का पारण सदैव सूर्योदय के बाद ही किया जाना चाहिए | वहीं, शास्त्रों में लिखा है कि एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले ही कर लें | द्वादशी तिथि समाप्त होने के बाद अगर पारण किया जाता है, तो उससे साधक को पाप लगता है |
एकादशी के व्रत करने वाले को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए ?
एकादशी (ग्यारस) के दिन व्रतधारी व्यक्ति को गाजर, शलजम, गोभी, पालक, इत्यादि का सेवन नहीं करना चाहिए । एकादशी पर श्री विष्णु की पूजा में मीठा पान चढ़ाया जाता है, लेकिन इस दिन पान खाना भी वर्जित है।
पुत्रदा एकादशी वर्ष में कितने बार आती है ?
पुत्रदाएकादशी साल में दो बार आती है, एक पौष के महीने में और दूसरी श्रावण माह में | पौष के महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी को पौष पुत्रदाएकादशी कहा जाता है, और श्रवण शुक्ल एकादशी को भी पुत्रदा एकादशी कहा जाता है | ये व्रत संतान प्राप्ति की कामना करने वाले लोगों के लिए अत्यंत उत्तम माना गया है
संतान प्राप्ति की कामना के लिए इस व्रत का खास महत्व माना जाता है | मान्यता है कि जो भी दंपति इस व्रत को पूरे विधि-विधान और श्रद्धा के साथ करता है उसे संतान सुख अवश्य मिलता है | ये व्रत रखने से समस्त पापों का नाश होता है और मृत्यु के बाद मोक्ष की भी प्राप्ति होती है | इस दिन भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है |
एकादशी व्रत में क्या वर्जित है ? (Putrada Ekadashi Vrat Katha )
इस व्रत में नमक, तेल, चावल, अथवा अन्न नहीं खाना चाहिए | मसूर की दाल का भी त्याग करना चाहिए | चने का साग, मधु (शहद), दूसरी बार भोजन नहीं करना चाहिए | व्रती को चाहिए कि झूठ एवं मिथ्या भाषण से बचे |
इन्हें भी देखें –
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