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भक्त प्रह्लाद – शीलव्रत के आदर्श (bhakt prahlad ki katha)

bhakt prahlad ki katha शीलव्रती के लिए कुछ भी असाध्य नहीं

पिछले लेख में हमने ” जगन्माता पार्वती जी का तपोव्रत ” इस सन्दर्भ में संक्षेप में चर्चा की थी इस लेख में bhakt prahlad ki katha ” भक्तराज प्रह्लाद – शीलव्रत के आदर्श  ” के सन्दर्भ में सक्षेप में चर्चा करेंगे |

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एक बार अपने पुत्र दुर्योधन को शोक-संतत्प देखकर धृतराष्ट्र ने पूछा – तात तुमने महान ऐश्वर्य प्राप्त किया है तुम्हे समस्त सुख सुविधाएँ उपलब्ध हैं, और सारे भाई, मित्र तथा सम्बन्धी सदा तुम्हारी सेवा में उपस्थित रहते हैं फिर भी तुम दिन प्रति दिन दुर्बल क्यों होते जा रहे हो ?

दुर्योधन ने कहा – पिताजी युधिष्ठिर के महल में दस हजार महामनस्वी स्नातक ब्राम्हण प्रति दिन सोने की थालियों में भोजन करते हैं | युधिष्ठिर के कुबेर सदृश उस विशाल ऐश्वर्य को देखकर में निरंतर शोक में डूबा जा रहा हूँ |

यह सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा – तात दुर्योधन इस प्रसंग में मैं तुम्हें नारदजी द्वारा प्रोक्त एक शीलविषयक कथा सुनाता हूँ जिसे तुम ध्यान से सुनो | 

धृतराष्ट्र द्वारा प्रह्लाद की कथा (bhakt prahlad ki katha)

प्राचीन काल में भक्तराज प्रह्लाद के अखंड शीलव्रत के प्रभाव के कारण अनायास ही उन्हें स्वर्ग सहित तीनों लोकों का साम्राज्य प्राप्त हो गया और सारे लोक उनके वशवर्ती हो गए | अपने राज्याधिकार से वंचित होने में प्रह्लाद की शीलसम्पन्नता को कारण जानकर देवराज इंद्र ने अपने प्रभाव में वृद्धि करने का निश्चय किया और देवगुरु बृहस्पति के पास जाकर उनसे अपने श्रेय की जिज्ञासा प्रकट की |

बृहस्पति ने उन्हें परम कल्याणकारी ज्ञान का उपदेश दिया | तदुपरांत ” इस श्रेय ज्ञान से विशिष्ट और क्या ज्ञातब्य है ? ”  इंद्र के इस प्रकार पूछने पर बृहस्पति ने उनसे कहा सुरश्रेष्ठ – इससे भी महत्वपूर्ण वस्तु का ज्ञान महातमा शुक्राचार्य को है| तुम उन्हीं के पास जाकर उस वास्तु का ज्ञान प्राप्त करो | तब महातपस्वी इंद्र ने शुक्राचार्य से निष्ठापूर्वक श्रेय का ज्ञान प्राप्त किया | इंद्र ने शुक्राचार्य से पूछा क्या इससे से भी श्रेय है ?

सर्वज्ञ आचार्य शुक्र ने उनसे कहा – इससे भी विशेष श्रेय का ज्ञान महात्मा प्रह्लाद को है | तुम उन्हीं के पास जाकर उस वस्तु का ज्ञान प्राप्त करो |तब प्रसन्न चित्त इंद्र ब्राह्मण का रूप धारण करके प्रह्लाद के पास गए और बोले – राजन मैं श्रेय जानना चाहते हूं |

प्रह्लाद ने उत्तर दिया – हे द्विजश्रेष्ठ तीनों लीकों की राज्य की ब्यवस्था में व्यस्त रहने के कारण मेरे पास क्षणभर का भी अवकाश नहीं है | अतः समयाभाववश मैं आपको उपदेश नहीं दे सकता | यह सुनकर ब्राम्हण ने कहा – राजन आपको जब भी अवसर मिलेगा, उसी समय में आपसे श्रेय का उपदेश ग्रहण करना चाहता हूँ |

ब्राम्हण की ऐसी बात सुनकर प्रह्लाद ने प्रसन्नता पूर्वक उनक अनुरोध स्वीकार कर लिया और शुभ समय में उन्हें श्रेय का ज्ञान प्रदान किया |

प्रह्लाद की सेवा स्वयं इंद्र द्वारा :-

इंद्र ने अनेक प्रकार से प्रह्लाद की सेवा करते हुए जब उनसे त्रिलोकी का राज्य प्राप्त करने का कारण जानने की उत्सुकता ब्यक्त की तो प्रह्लाद ने उनसे कहा – विप्र राजा हूँ  इस अहंकारवश में कभी ब्राम्हणों की निंदा नहीं करता, बल्कि जब वे मुझे शुक्र नीति का उपदेश करते हैं तब में संयम पूर्वक उनकी आज्ञा का पालन करता हूँ |

मैं सदा शुक्राचार्य के नीतिमार्ग का अनुसरण करता हूँ, निरंतर ब्राम्हणों की सेवा करता हूँ, किसी के दोष नहीं देखता | संयतेन्द्रिय बनकर तथा क्रोध पर विजय पाकर धर्म में मन लगता हूँ | ब्राम्हणों के मुख में जो शुक्राचार्य का नीति वाक्य है वही इस पृथ्वी का अमृत है वही सर्वोत्तम नेत्र है | राजा को इसी अमृत वचन के अनुसार व्यवहार करना चाहिए | बस इतना ही श्रेय है |

पुनः इंद्र की सेवा और विनय से प्रसन्न होकर प्रह्लाद ने उनसे मनोवांछित वर मांगने को कहा | ब्राम्हण रूपधारी इंद्र ने कहा – राजन यदि आप प्रसन्न हैं और मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो में आपका शील प्राप्त करना चाहता हूँ यही मेरा वर है –

भवतः शीलमिच्छामि प्राप्तुमेष वरो मम ||

( महाभारत शांतिपर्व  १२४ | ४२ )

शीलनिधान प्रह्लाद ने ‘ तथास्तु ‘ कहकर अपने वचन के अनुरूप वर देकर शीलका दान कर ब्राम्हण को विदा तो कर दिया पर भीतर- भीतर ही वे भयभीत हो उठे | अभी वे चिंतामग्न ही थे कि उनके शरीर से एक विशालकाय परम कांतिमान तेज निकलकर अलग हो गया | उससे प्रह्लाद ने पूछा आप कौन हैं ?

शील का प्रकट होना

पुरुष ने उत्तर दिया – राजन में शील हूँ | तुम्हारे द्वारा त्याग देने के कारण अब में जाकर उसी श्रेष्ठ ब्राम्हण के शरीर में निवास करूँगा जो यहां तुम्हारा शिष्य बनाकर तुम्हारी सेवा कर रहा था | इतना बोलकर शील अदृश्य हो गया और इंद्र के शरीर में जाकर प्रविष्ट हो गया उस तेज के जाते ही प्रह्लाद के शरीर से फिर एक वैसा ही तेज प्रकट हुआ | प्रह्लाद ने पूछा आप कौन हैं ?

उसने उत्तर दिया – राजन मैं धर्म हूँ | अब मैं उस श्रेष्ठ ब्राम्हण के पास जाऊंगा क्योंकि जहां शील रहता है वहीं में भी रहता हूँ |धर्म के जाते ही प्रह्लाद के शरीर से एक तीसरा वैसा ही प्रज्वलित सा तेज प्रकट हुआ | प्रह्लाद के पूछने पर उस महातेजस्वी ने कहा – राजन मैं सत्य हूँ | अब में धर्म के पीछे – पीछे जाऊंगा |

सत्य के जाने के पश्चात् प्रह्लाद के शरीर से एक अन्य तेज प्रकट हुआ | परिचय पूछने पर उसने उत्तर दिया – प्रह्लाद तुम मुझे वृत्त (सदाचार ) समझो | जहां सत्य रहता है वहीँ में भी रहता हूँ |

जब सदाचार भी चला गया तब प्रह्लाद के शरीर से महान  शब्द करता हुआ एक अन्य तेज प्रकट हुआ | उसने अपना परिचय देते हुए कहा – प्रह्लाद मुझे बल समझो | जहां सदाचार रहता है वहीँ मेरा भी स्थान है | ऐसा बोलकर बल भी वहां से चल पड़ा | तब प्रह्लाद के शरीर से एक प्रभामयी देवी प्रकट हुई | प्रह्लाद ने पूछा हे देवी आप कौन हैं ?

प्रह्लाद के शारीर से लक्ष्मी का प्राकट्य :-

वे बोलीं – मैं लक्ष्मी हूँ | हे सत्य पराक्रमी वीर मैं स्वयं ही आकर तुम्हारे शरीर में निवास कराती थी परन्तु अब तुम्हारे त्याग देने से जा रही हूँ, क्योंकि में सदा बल की अनुगामिनी हूँ | लक्ष्मी की बात सुनकर भयाक्रांत प्रह्लाद ने पूछा – हे परमेश्वरि आप कहाँ जा रहीं हैं ? मैं यह जानना चाहता हूँ कि वास्तव में वह श्रेष्ठ ब्राम्हण कौन था ?

लक्ष्मी बोलीं प्रभो तुमने जिसे उपदेश दिया वे ब्राम्हण के रूप में साक्षात् इंद्र थे | तुमने शील के द्वारा ही तीनों लोकों पर विजय पायी थी यह जानकर ही सुरेंद्र ने तुम्हारे शील का हरण कर लिया | धर्म, सत्य, सदाचार, बल और मैं (लक्ष्मी ) – ये सब सदा शील के ही आधार पर रहते हैं | शील ही इन सबका मूल है –

धर्मः सत्यं तथा वृत्तं बलं चैव तथाप्यहं |

शीलमूला महाप्राज्ञ सदा नास्त्यत्र संशयः ||

( महा ० शांति ० १२४ | ६२ )

शील क्या कहलाता है

ऐसा बोलकर लक्ष्मी भी देवराज इंद्र के पास चलीं गयीं जहां शील आदि गए थे | इस प्रकार दुर्योधन को प्रह्लाद की यह कथा सुनाकर धृतराष्ट्र ने कहा – बेटे मन वाणी और क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी से द्रोह न करना, सब पर दया करना और यथा शक्ति दान देना यह शील कहलाता है जो सर्वत्र प्रशंसनीय है –

अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा |

अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत प्रशस्यते ||

( महा ० शांति ० १२४ | ६६  )

अपना जो भी पुरुषार्थ और कर्म दूसरों के लिए हितकर न हो अथवा जिसे करने में संकोच का अनुभव होता हो उसे किसी तरह नहीं करना चाहिए –

जो कर्म जिस प्रकार करने से भरी सभा में मनुष्य की प्रसंसा हो उसे उसी प्रकार करना चाहिए | यह संक्षेप में शील का स्वरूप तुम्हें बता रहा हूँ –

तत्तु कर्म तथा कुर्याद येन श्लाध्येत संसदि |

शीलं सामसेनैतत ते कथितं कुरुसत्तम ||

( महा ० शांति ० १२४ | ६८ )

शील द्वारा पृथ्वी का राज्य प्राप्त

इसलिए यदि तुम युधिष्ठिर से अधिक वैभव तथा ऐश्वयर पाना चाहते हो तो शीलवान बनो  | शास्त्र ज्ञान का फल शील है | शील महान तीर्थ है और शील ही सर्वोत्तम आभूषण है – शीलं परं भूषणं | शील के बल पर ही मान्धाता ने एक दिन में, जन्मेजय ने तीन दिन में, और नाभाग ने सात दिनों में इस पृथ्वी का राज्य प्राप्त कर लिया था –

एकरात्रेण मान्धाता त्र्यहेण जनमेजयः |

सप्तरात्रेण नाभागः पृथिवीं प्रतिपेदिरे ||

 ( महा ० शांति ० १२४ | १६ )

निस्संदेह शील के द्वारा तीनों लोकों पर विजय पाई जा सकती है | शीलव्रतधारियों के लिए संसार में कुछ भी असाध्य नहीं है –

शीलेन हि त्रयो लोकाः शक्या  जेतुं न संशयः |

न हि किञ्चदसाध्यं वै लोके शीलवतां भवेत् ||

( महा ० शांति ० १२४ | १५ )

इस लेख में हमने (bhakt prahlad ki katha) ” भक्तराज प्रह्लाद – शीलव्रत के आदर्श ” इस सन्दर्भ में संक्षेप में चर्चा की थी | अगले लेख में ” व्रतों के आदि उपदेष्टा भगवान वेदव्यास और उनकी व्रतचर्या ” के सन्दर्भ में सक्षेप में चर्चा करेंगे | 

इन्हें भी देखें :-

भरतजी का महान व्रत ( bharat ji ka mahan vrat )

हनुमान जी की कथा (hanuman ji ki katha)

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श्री मद्भागवत महापूर्ण मूल पाठ से लाभ

Pandit Rajkumar Dubey

Pandit Rajkumar Dubey

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